संत नामदेव जी की जीवनी

जीवनचरित्र :
नामदेव जी का जन्म 26 अक्टूबर 1270, रविवार में प्रथम संवत्सर, संवत १३२७, कार्तिक शुक्ल एकादशी को पंढरपुर में हुआ था। नामदेवजी का जन्म पैतृक गाँव नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम के मूलनिवासी दामा शेठ "शिम्पी" (मराठी में) जिसे राजस्थान में "छीपा" भी कहते है, के यहाँ पंढ़रपुर में हुआ था। इनकी ज्ञानेश्वरजी से भेंट हुई और उनकी प्रेरणा से इन्होंने नाथपंथी विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उनको प्रेमाभक्ति में ज्ञान का समावेश हो गया। डॉ॰ मोहनसिंह, "नामदेव" को रामानंद का शिष्य बतलाते हैं। परन्तु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है -

ज्ञानेश्वर जी और नामदेव जी ने उत्तर भारत की साथ-साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलायत (बीकानेर) नामक स्थान तक ही नामदेव जी के साथ गए थे। वहाँ से लौटकर ज्ञानेश्वरजी ने "आळंदी" में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेवजी का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। गुरुदासपुर जिले के "घुमान" नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख भगवान जगमोहनजी(कृष्ण) मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पूजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, घटना राजस्थान के पाली जिले में मारवाड़ के पास "बारसा" नामक गाँव में कृष्ण भगवान जिन्हें स्थानीय लोग भगवान जगमोहनजी कहते हैं, के पौराणिक मंदिर की घटना का वृतांत भी मिलता हैं। इसका उल्लेख "हंसनिर्वाणी संत मोहनानंदजी महाराज" द्वारा अपने हस्तलिखित पुस्तक में किया हैं, जिस पर शोध कर पाली के "गुड़ाएन्दला गाँव" निवासी ""श्री अशोक आर.गहलोत, अहमदाबाद"" ने सैद्धांतिक व प्रायोगिक प्रमाणों के साथ "सन् 2003" में उजागर किया। जहां "नामदेव भक्ति संप्रदाय संघ" के प्रणेता ह.भ.प. श्री रामकृष्ण जगन्नाथ बगाडे महाराज, पुणे ने राष्ट्रीय स्तर का अधिवेशन कर इस स्थान की पुष्टि सन् 2005 में की), विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र के पंढरपुर स्थित विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में परिवार के एक सदस्य(बडे बेटे की बहु) को छोड़कर संजीवन समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान घुमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।

नामदेव जी के मत :
बिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने "राम" से मिलने की) "तालाबेली" (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यत्र-तत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर से पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।

परलोक गमन :
आपने तीन बार तीर्थ यात्राएं की व साधु संतो के साथ भ्रमण करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके साथी संत ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उपराम रहने लग गए। जीवन के अंतिम दिनों में श्री नामदेवजी पुनः पंढरपुर आ गए और 3 जुलाई सन 1350 शनिवार को सपरिवार "संजीवन समाधी" लेकर मोक्ष प्राप्त किया। आज भी उनके भक्त इस दिन को "श्री नामदेव समाधि दिवस" के रूप में याद करके अपने को धन्य समझते है। उन्होंने समाधि भी श्री विट्ठल भगवन के मंदिर में जाने वाली सीढ़ियों (जिसे मराठी में "पायरी" कहते है) में ली। उनकी अंतिम इच्छा भी यही थी की श्री हरि विट्ठल के दर्शनार्थ जो भी भक्त मंदिर में प्रवेश करे तब उनकी रज कण मेरे माथे पर पड़े और वो श्री विट्ठल के दर्शन करे . आज भी वो स्थान "श्री नामदेव पायरी" के नाम से जाना जाता है।

 

 

Source: wikipedia